मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008
हर दिन, हर सुबह एक नया जीवन है,
हर दिन,हर सुबह एक नया जीवन है,इसलिए नए जीवन की शुरुआत पुराने मन से मत करो,नए जीवन के साथ मन भी नया होना चाहिए.हो सकता है रातभर में तुम्हारा दुसमन मित्र बन गया हो और मित्र दुसमन.इसलिए जब सुबह किसी से मिलो तो एकदम अजनबी की तरह मिलो.कोई अपनी पूर्व-धारणा लेकर मत मिलो और सुबह प्रभु से प्राथना में कहो,प्रभु!मै इस दिन के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ की आज के दिन कोई कितना भी भारकाए,मै शांत रहूँगा एवं आग का जबाब पानी से दूंगा!अगर आप लोग हमारी इस बात से सहमत है.तो फ़िर आईये हम सब मिलकर ये संकल्प ले और पूर्व की धारणाओं-विचारों और पुरानी गिले-शिकवे को दीपावली के इस महापर्व की ज्योत में जलाकर एक नई सुबह एक नया जीवन की शुरुआत करे!आपको एवं आपके सहपरिवार को दीपावली की शुभकामनाये!
रविवार, 26 अक्टूबर 2008
अत्याधुनिकता ने परिवेश को कलुषित किया है
बदलते परिवेश में आज की अधिकांश लड़कियों में अनैतिकता व अनुशासन्हीनता भी अपर्त्याशित रूप से पनपी है। फिल्मो व पाश्चत्य संस्कृति के परिपेछ्य में हर लडकी स्वंय को मार्दन समझने लगी है नई उपज की नई पौध ये लड़कियों पहनने, ओड़ने का सलीका, बातचीत की तहजीब व आदरभाव जैसे आदर्श मनको को त्यागकर मुंहफट,गैलिहाजी व दिग्भ्रमित हो चली है उनकी शक्तियों का सार्थक मापदंड निश्चित नही हो पाया है। दरअसल आज लड़कियों में अत्याधुनिकता व व्यापक सोंच की स्वतंत्रता तो बढ़ी है, लेकिन यह सब जागरूक व संवेदनशील नारी की असीमता के सर्वथा खिलाफ है। भारतिय सांस्कृतिक परिवेश में जीते हुए पाश्चात्य की नक़ल सरासर बेमानी व मानसिक दिवालियपन की परिचायक है।चंद अपवादों को छोरकर अमूमन हर लडकी स्वंय को किसी फिल्मी नायिका से कम नही समझती है। घर के आँगन से स्कूल, कॉलेज कैम्पस तक सवर्त्र ही अयाधुनिकता का एक पर्तिस्पर्धात्मक नाजारा देखने व सुनने को मिलता है, प्रत्येक लडकी फैशन का खूबसूरत जामा पहनकर स्वंय को श्रेष्ठ साबित करने हेतु उत्सुक व प्रयास्त है। नैतिक मूल्यों की धज्जिया उडातीये लडकिया भावनाओं के धरातल पर भी संवेदन शून्य हो चली है। आज हर लडकी दोरा यह सोंचा जाना आवश्यक है वह अपने परिबार व समाज के परती आख़िर कहां तक चिंतितसमपिर्त नजर आती है नि:संदेह नतीजा सिफर ही निकलेगा येसी विसंगति व त्रासदायी परिस्थितियों के फल स्वरूप ही चुनोतियों व संघर्षो के बिच फासले आज बद गये है, इन सबके लिए आख़िर कोन जिम्मेदार व कसूरवार है? लडकी के माता-पिता, उनके गुरु, आधुनिक परिवेश या फ़िर स्वंय लडकिया? जहाँ तक माता-पिता का सवाल है 'कहना उनका फर्ज है और जीना मेरी स्वतंत्रा बेटियाँ यही सोंचकर अपने माता-पिता के कसावट भरे संस्कारों को निष्प्रभावी व निर्थक सिद्ध कर रही है; उधर गुरु व शिष्या के बिच आदरभाव व शालीनता का तारतम्य टूट चुका है। लडकियाँ प्रसंगवश अपने गुरु का मखोल उडाती नजर आती है। अत्याधुनिक लड़कियों ने सारे माहोल को ही सराकर रख दिया है, इस कड़वी सचाई को आज हर लडकी द्रोरा सहज ही स्वीकारना होगा?
शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008
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